।।दोहा।।
जय जय जय जगपावनी जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनीअनुपम तुंग तरंग ॥
॥ चौपाई ॥
जय जग जननि अघखानी, आनन्द करनि गंग महरानी।
जय भागीरथि सुरसरि माता, कलिमल मूल दलनि विखयाता।।
जय जय जय हनुसुता अघ अननी, भीषमकी माता जग जननी।
धवलकमल दल मम तनुसाजे, लखि शत शरदचन्द्र छवि लाजे ।।
वाहनमकर विमल शुचि सोहै, अमिय कलश कर लखिमन मोहै ।
जडित रत्न कंचन आभूषण, हिय मणि हार, हरणितम दूषण ।।
जग पावनि त्रय ताप नसावनि, तरल तरंग तंग मनभावनि ।
जो गणपति अति पूज्य प्रधाना, तिहुं ते प्रथम गंगअस्नाना ।।
ब्रह्म कमण्डल वासिनीदेवी श्री प्रभु पदपंकज सुख सेवी ।
साठिसहत्र सगर सुत तारयो, गंगा सागर तीरथ धारयो।।
अगमतरंग उठयो मन भावन, लखि तीरथ हरिद्वार सुहावन।
तीरथराज प्रयाग अक्षैवट, धरयौ मातु पुनिकाशी करवट ।।
धनिधनि सुरसरि स्वर्ग की सीढ़ी, तारणिअमित पितृ पद पीढी।
भागीरथतप कियो अपारा, दियोब्रह्म तब सुरसरिधारा ।।
जब जग जननी चल्योलहराई, शंभु जटा महंरह्यो समाई ।
वर्षपर्यन्त गंग महरानी, रहींशंभु के जटा भुलानी।।
मुनिभागीरथ शंभुहिं ध्यायो, तब इक बूंदजटा से पायो ।
तातेमातु भई त्रय धारा, मृत्यु लोक, नभ अरुपातारा ।।
गई पाताल प्रभावति नामा, मन्दाकिनी गई गगन ललामा।
मृत्युलोक जाह्नवी सुहावनि, कलिमल हरणि अगम जगपावनि ।।
धनिमइया तव महिमा भारी, धर्म धुरि कलि कलुषकुठारी ।
मातुप्रभावति धनि मन्दाकिनी, धनिसुरसरित सकल भयनासिनी ।।
पानकरत निर्मल गंगाजल, पावत मन इच्छितअनन्त फल ।
पूरबजन्म पुण्य जब जागत, तबहिंध्यान गंगा महं लागत।।
जई पगु सुरसरि हेतुउठावहिं, तइ जगि अश्वमेधफल पावहिं ।
महापतित जिन काहु नतारे, तिन तारे इकनाम तिहारे ।।
शत योजनहू से जो ध्यावहिं, निश्चय विष्णु लोक पद पावहिं।
नामभजत अगणित अघ नाशै, विमलज्ञान बल बुद्धि प्रकाशै।।
जिमिधन मूल धर्म अरुदाना, धर्म मूल गंगाजलपाना ।
तव गुण गुणन करतसुख भाजत, गृह गृह सम्पत्तिसुमति विराजत ।।
गंगहिंनेम सहित निज ध्यावत, दुर्जनहूं सज्जन पद पावत ।
बुद्धिहीनविद्या बल पावै, रोगीरोग मुक्त ह्वै जावै।।
गंगागंगा जो नर कहहीं, भूखे नंगे कबहूं नरहहीं ।
निकसतकी मुख गंगा माई, श्रवण दाबि यम चलहिंपराई ।।
महांअधिन अधमन कहं तारें, भए नर्क के बन्दकिवारे ।
जो नर जपै गंगशत नामा, सकल सिद्ध पूरणह्वै कामा ।।
सब सुख भोग परमपद पावहिं, आवागमन रहित ह्वैजावहिं ।
धनिमइया सुरसरि सुखदैनी, धनि धनि तीरथराज त्रिवेणी ।।
ककराग्राम ऋषि दुर्वासा, सुन्दरदासगंगा कर दासा ।
जो यह पढ़ै गंगाचालीसा, मिलै भक्ति अविरलवागीसा ।।
।।दोहा।।
नितनव सुख सम्पत्ति लहैं, धरैं, गंग का ध्यान।
अन्तसमय सुरपुर बसै, सादर बैठिविमान ॥
सम्वत् भुज नभ दिशि, रामजन्म दिन चैत्र ।
पूणचालीसा कियो, हरि भक्तन हितनैत्र ॥
।।इतिश्रीगंगा चालीसा समाप्त।।
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