।।दोहा।।
जनकजननि पद्मरज, निज मस्तक परधरि।
बन्दौंमातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥
पूर्णजगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु।
दुष्टजनोंके पाप को, मातुतु ही अब हन्तु॥
॥ चौपाई ॥
जय श्री सकल बुद्धिबलरासी।
जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥
जय जय जय वीणाकरधारी।
करतीसदा सुहंस सवारी॥
रूपचतुर्भुज धारी माता।
सकलविश्व अन्दर विख्याता॥
जग में पाप बुद्धिजब होती।
तब ही धर्म कीफीकी ज्योति॥
तब ही मातु कानिज अवतारी।
पापहीन करती महतारी॥
वाल्मीकिजीथे हत्यारा।
तव प्रसाद जानै संसारा॥
रामचरितजो रचे बनाई।
आदिकवि की पदवी पाई॥
कालिदासजो भये विख्याता।
तेरीकृपा दृष्टि से माता॥
तुलसीसूर आदि विद्वाना।
भयेऔर जो ज्ञानी नाना॥
तिन्हन और रहेउ अवलम्बा।
केवलकृपा आपकी अम्बा॥
करहुकृपा सोइ मातु भवानी।
दुखितदीन निज दासहि जानी॥
पुत्रकरहिं अपराध बहूता।
तेहिन धरई चित माता॥
राखुलाज जननि अब मेरी।
विनयकरउं भांति बहु तेरी॥
मैंअनाथ तेरी अवलंबा।
कृपाकरउ जय जय जगदंबा॥
मधु-कैटभ जो अतिबलवाना।
बाहुयुद्धविष्णु से ठाना॥
समरहजार पांच में घोरा।
फिरभी मुख उनसे नहींमोरा॥
मातुसहाय कीन्ह तेहि काला।
बुद्धिविपरीत भई खलहाला॥
तेहिते मृत्यु भई खल केरी।
पुरवहुमातु मनोरथ मेरी॥
चंडमुण्ड जो थे विख्याता।
क्षणमहु संहारे उन माता॥
रक्तबीज से समरथ पापी।
सुरमुनिहृदय धरा सब काँपी॥
काटेउसिर जिमि कदली खम्बा।
बार-बार बिन वउंजगदंबा॥
जगप्रसिद्धजो शुंभ-निशुंभा।
क्षणमें बांधे ताहि तू अम्बा॥
भरत-मातु बुद्धि फेरेऊजाई।
रामचन्द्रबनवास कराई॥
एहिविधिरावण वध तू कीन्हा।
सुरनरमुनि सबको सुख दीन्हा॥
को समरथ तव यशगुन गाना।
निगमअनादि अनंत बखाना॥
विष्णुरुद्र जस कहिन मारी।
जिनकीहो तुम रक्षाकारी॥
रक्तदन्तिका और शताक्षी।
नामअपार है दानव भक्षी॥
दुर्गमकाज धरा पर कीन्हा।
दुर्गानाम सकल जग लीन्हा॥
दुर्गआदि हरनी तू माता।
कृपाकरहु जब जब सुखदाता॥
नृपकोपित को मारन चाहे।
काननमें घेरे मृग नाहे॥
सागरमध्य पोत के भंजे।
अतितूफान नहिं कोऊ संगे॥
भूतप्रेत बाधा या दुःखमें।
हो दरिद्र अथवा संकट में॥
नामजपे मंगल सब होई।
संशयइसमें करई न कोई॥
पुत्रहीनजो आतुर भाई।
सबैछांड़ि पूजें एहि भाई॥
करैपाठ नित यह चालीसा।
होयपुत्र सुन्दर गुण ईशा॥
धूपादिकनैवेद्य चढ़ावै।
संकटरहित अवश्य हो जावै॥
भक्तिमातु की करैं हमेशा।
निकटन आवै ताहि कलेशा॥
बंदीपाठ करें सत बारा।
बंदीपाश दूर हो सारा॥
रामसागरबांधि हेतु भवानी।
कीजैकृपा दास निज जानी॥
।।दोहा।।
मातुसूर्य कान्ति तव, अन्धकार ममरूप।
डूबनसे रक्षा करहु परूं नमैं भव कूप॥
बलबुद्धिविद्या देहु मोहि, सुनहुसरस्वती मातु।
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु॥
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